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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।

उत्तर -

धव खदिरौछिधि - (धव और खादिर के पेड़ों को काटो

लौकिक विग्रह - धवश्चेति खदिरश्चेति धवखदिरों
अलौकिक विग्रह - 'धव अम् + खदिर अम्' अथवा 'धव सु + खदिर सु

यहाँ पर धव तथा खदिर सहित भाव से एक समूह के रूप में छेदन क्रिया में कर्मत्वेन अन्वित हो रहे हैं, अतएव 'चार्थे द्वन्द्वः' सूत्र से धव अम् + खदिर अम् इस अलौकिक विग्रह में इतरेतरयोग के अर्थ में द्वन्द्व समास हुआ। 'अल्पाऽचूतरम्' सूत्र से 'धवअम्' का पूर्व प्रयोग हुआ। पुनः कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपादेकयोः' से प्रातिपदिकावयव दोनों सुपों का लुक होकर बना - धवखदिरा। पुनः 'एकदेशविकृतमानन्यवृत्' न्यायानुसार 'धवखदिर' की प्रातिपादिकता अक्षुण्ण रहने से 'ङयापप्रातिपदिकात् सूत्र द्वारा सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में द्वितीया के एकवचन की विवक्षा में 'और' (औ) लाने पर 'धवखदिर' + औ हुआ। सन्धिकर्म के प्रसङ्ग में 'वृद्धिरेचि' से वृद्धि एकादेश की प्राप्ति हुई। इस प्रकार प्रयोग सिद्ध हुआ धवदिरौ।

प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में औ लाने पर धवखदिर + औ स्थिति में प्राप्त वृद्धिरेचि का बाध प्रथमयोः पूर्वसवर्णः द्वारा होकर पूर्व सवर्ण दीर्घ एकादेश प्राप्त होता है। किन्तु उसका भी वाद्य 'नाडडदीपि' सूत्र से होता है। अब 'देवदत्त हन्ति हतन्याय व भ्रष्टावलसरे न कार्यभागा भवति परिभाषा द्वारा 'नृद्धिरेचि' की पुर्नप्राप्ति नहीं होनी चाहिए किन्तु औ सत् की पाणिनीय ज्ञापकता और अपवादे निषिद्धे उत्सर्गस्य स्थिति: परिभाषा के आधार पर 'वृद्धिरेचि' की पुनर्प्राप्ति होकर वृद्धि एकादेश द्वारा 'धवखदिरौ रूपसिद्ध हुआ।

संज्ञा परिभाषम् - (संज्ञा और परिभाषा का समाहार)

लौकिक विग्रह - संज्ञा च परिभाषा च तयोः समाहारः संज्ञापरिभाषम्
अलौकिक विग्रह - संज्ञासु + परिभाषा सु।

यहाँ पर चार्थे द्वन्द्वः 'सूत्र से समाहार अर्थ में संज्ञा सु + परिभाषा सु' में द्वन्द्व समास हुआ। पुनः सूत्र 'अल्पाच्तरम्' से संज्ञा 'सु' का पूर्व प्रयोग हुआ। अब 'कृत्तद्धितसमासाश्च सूत्र से समस्त समुदाय की प्रातिपादिक संज्ञा तथा 'सुपो धातुप्रातिपादिकायो:' से प्रतिपदिकावयव दोनों सुपों का लुक् होकर रूप बना संज्ञा परिभाषा। पुनः 'स नुपंसकम्' सूत्र से द्वन्द्व समास के नुपंसक होने के कारण 'हस्वे नपुसंके प्रातिपादिकस्य' द्वारा 'संज्ञा परिभाषा' को ह्रस्व अन्तादेश होकर रूप बना संज्ञा परिभाषा। एकदेशविकृतृ- मनन्यवत्। न्यायेन प्रातिपादिक 'संज्ञा परिभाषा' से ङयाप्रगतिपदिकात्' सूत्र से सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा को एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय उसे अंतोऽम् सूत्र से समादेश तथा अभिपूर्वः' से पूर्वरूप एकादेश करने पर 'संज्ञा परिभाषम् रूप सिद्ध होता है।

राजदन्तः - (दाँतों का राजा ऊपरी पंक्ति में सामने का दाँत)

लौकिक विग्रह - दन्तानां राजा राजदन्तः
अलौकिक विग्रह - दन्त आम् + राजन् सु।

यहाँ पर 'षष्ठी' सूत्र द्वारा षष्ठी तत्पुरुष समास हुआ है। प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' से सूत्रस्थ प्रथमा निर्दिष्ट शब्द 'षष्ठी' से बोध्य अर्थात् षष्ठ्यन्त 'दन्त आम्' की उपसर्जन संज्ञा तथा उसका पूर्वनिपात प्राप्त था, किन्तु 'राजदन्तादिषु परम्' द्वारा इसका परनिपात होकर 'राजन् सु + दन्त आम्' बना पुनः कृन्तद्वितसमासाश्च सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपदिकायोः' से उसके अवयव दोनों सुपों का लुक् होकर राजन् दन्त बना। 'न लोपः प्रतिपादिकान्तस्य से 'राजन्। के नकार का लोप होकर 'राजदत्त' बना। पुनः एकदेशविकृतन्यत्रन्यवृतन्यायानुसार राजदत्त की प्रातिपदिक सञ्ज्ञा अक्षुण्ण रहने से ङ्याप्प्रातिपादिकात् सूत्र द्वारा सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' आया। परिवल्लिङ्ग द्वन्द्वपुरुषयोः सूत्र द्वारा पुल्लिंग 'राजदत्त' से परे सु का रुत्व विसर्ग होकर 'राजदत्त' प्रयोग सिद्ध हुआ।

अर्थधर्मो तथा धर्माथौ - (अर्थ और धर्म)

लौकिक विग्रह - धर्मश्च अर्थश्च अर्थधर्मौ धर्मार्थौ वा
अलौकिक विग्रह - धर्म सु + अर्थ सु।

यहाँ पर 'चार्थे द्वन्द्वः' सूत्र से इतरेतरयोग के अर्थ में द्वन्द्व समास हुआ है। समास होने पर 'अज्ञाद्यन्तम्' सूत्र (वक्ष्यमाण) द्वारा अर्थ सु का पूर्व निपात होना चाहिए, किन्तु राजदन्तादियों में पाठ के कारण धर्मादिण्वनियमः इस उद्धित गणसूत्र से किसी का भी पूर्वनिपात प्राप्त होता है।

इस प्रकार 'अर्थ सु' का पूर्वनिपात करने पर अर्थ सु + धर्म सु स्थिति में समास की प्रातिपादिक संज्ञा सुब्लुक् तथा प्रथमा के द्विवचन की विवक्षा में और प्रत्यय आने पर विभक्ति - कार्योपरान्त 'अर्थधर्मौ' सिद्ध होता है अथवा धर्मसु का पूर्वनिपात करने पर प्रक्रिया के उपरान्त धर्माथौ सिद्ध होता है।

हरिहरौ - (विष्णु और शिव)

लौकिक विग्रह - हरिश्च हरश्च हरिहरौ।
अलौकिक विग्रह - हरि सु + हर सु।


यहाँ पर 'चार्थे द्वन्द्वः' सूत्र से इतरेतरयोग में द्वन्द्व समास हुआ है। 'शेषोध्यसखि ' सूत्र से हरि की 'धि' संज्ञा तथा 'द्वन्द्वे धि से उसका पूर्वनिपात होकर बना हरि सु + हर सु। 'वृत्तद्विसमासाश्च' से समग्र समुदाय की प्रातिपदिकसञ्ज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः' से उसके अवयव सुपों (दोनों सु) का लुक् होकर हरिहर बना। 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' से प्रातिपादिक सञ्ज्ञा की अक्षुणता से 'ङयापप्रतिपदिकात्' द्वारा सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में, प्रथमा के द्विवचन के विवक्षा में 'औ' प्रत्यय तथा विभक्ति कार्योपरान्त 'हरिहरौ' प्रयोग सिद्ध हुआ।

ईशकृष्णौ - (शिव और कृष्ण)

लौकिक विग्रह - ईशश्च कृष्णश्च ईशकृष्णौ
अलौकिक विग्रह - ईश सु + कृष्ण सु।


यहाँ पर 'चार्थेद्वन्द्वः' से इतरेतरयोग में द्वन्द्व समास हुआ है। पुनः अज्ञाद्यदन्तम् से 'ईशसु' का पूर्व निपात होकर रूप बना ईशसु + ल कृष्ण सु। शेष उपरिवत्।

शिवकेशवौ
- (शिव और केशव) (शिव और कृष्ण)

लौकिक विग्रह - शिवश्च केशवच शिवकेशणौ।
अलौकिक विग्रह - शिव सु + ल केशव सु।

यहाँ पर 'चार्ये द्वन्द्वः' से इतरेतरयोग में द्वन्द्वसमास है। समास होने पर अल्याच्तरम् से 'शिव सु का पूर्व निपात होकर शिव सु + केशव सु। शेष पूर्ववत्।

माता-पितरौ (माता और पिता)

लौकिक विग्रह - माता च पिता च मातापितरौ पितरौ वा।
अलौकिक विग्रह - मातृ सु + पितृ सु।

 

यहाँ पर चार्थो द्वन्द्वः 'सूत्र से इतरेतरयोग में द्वन्द्व समास हुआ है। अभ्यर्हितं च वार्तिक से माता का पूज्य होने के कारण पूर्व निपात होकर मातृ सु + पितृ सु बना।

'कृत्ताद्धित समासाश्च' से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक संज्ञा तथा "सुपोधातुप्रतिपादिकियोः सूत्र से प्रातिपादिकावयव सुपों का लुक् होकर मातृ + पितृ बना। अनाङ ऋतोद्वन्द्वे से मातृ ऋकार का आनङ (आन) आदेश होकर 'मातृन् + पितृ' बना। न लोपः प्रातिपादिकान्तस्य सूत्र द्वारा नकार का लोप होकर 'मातापितृ' बना। 'एकदेशविकृतस्या मनन्यवात्' न्यायानुसार माता पितृ की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा अक्षुण्ण रहने से ङयाप्प्राति-पादिकात् द्वारा सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के द्विवचन के विवक्षा में औ आने पर माता पितृ + औ हुआ। 'ऋतो ङि सर्वनामस्थानयो:' सूत्र से नपुसंकलिङ्ग से भिन्न सुट् (सु औ, जस् अम् औट) की सर्वनाम स्थान संज्ञा) ऋकार से परे 'सर्वनाम स्थान' प्रत्यय होने से ऋकार के स्थान पर गुण आदेश होकर 'उदण रपर' की सहायता से माता पित् अर् + और मातापितरौ प्रयोग सिद्ध होता है।

'चार्थे द्वन्द्वः' से इतरेतरयोग में द्वन्द्व समास होने पर माह सु का पूर्वनिपात होने, समास की प्रातिपादिक संज्ञा तथा सुब्लुक के बाद 'मातृ + पितृ' स्थित होने पर 'पिता माता' सूत्र द्वारा विकल्प से एकदेषवृत्ति की प्रवृत्ति होती है। भावपक्ष में 'मातृ' शब्द का लोप होकर 'पितृ' ही शेष रहता है। यः शिष्यते स लुप्यभानार्थभिधायी न्यायानुसार शेष रहा पितृ शब्द माता-पिता दोनों के अर्थों को प्रकट करता है। अतएव अवशिष्ट पितृशब्द की प्रातिपादिकता अक्षुण्ण रहने से सुबत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के द्विवचन की विवक्षा मैं सुप् प्रत्यय और लाने पर 'पितृ + औ' अवस्था में ऋतोङिसर्वनामस्थानयोः, सूत्र से ऋकार को उरण् रपरः की सहायता से गुणादेश होकर पित् अर + रौर = पितरौ प्रयोग सिद्ध हुआ।

पाणिरपादम् - (हाथों व पावों का समूह)

लौकिक विग्रह - पाणि च पादौ च एषां समाहारः पाणिपादम्
अलौकिक विग्रह - प्राणि औ + पाद औ

यहाँ पर 'चार्थे द्वन्द्वः' सूत्र से समाहार अर्थ में द्वन्द्व समास " द्वन्द्वे धि' से पाणि और का पूर्वनिपात सूत्र 'कृत्तद्वितसमासाश्च' से प्रातिपदिकसञ्ज्ञा, सुपोधातुप्रतिपादिकायोः' से प्रातिपदिकावयव सुपों का लुक् होकर 'पाणि पाद' बना। द्वन्द्वश्च प्राणि तूर्य सेनाङ्गनाम् सूत्र से प्राण्यङ्गो का द्वन्द्व समास होने से एकवद्भाव हो जाता है। 'एकदेशविकृतमनन्यवत् न्यायानुसार 'प्राणिपाद' की प्रातिपादिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से 'ङ्याप्प्रातिपदिकात' सूत्र से सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय 'स नुपंसकम्' सूत्र से नपुंसकत्व हो जाने से 'अंतोऽम्' सूत्र द्वारा सु को समादेश तथा अभिपूर्वः द्वारा पूर्वरूप एकादेश होने पर पाणिरपादम् प्रयोग सिद्ध हुआ।

मार्दङ्गिक वैणाविकम् - (तबलावादकों तथा वेणुवादकों का समूह)

लौकिक विग्रह- मार्दङ्गिकाश्च वैणविकाश्च एषां समाहारो मार्दङ्गिकवैणाविकम्।
अलौकिक विग्रह- मार्दङ्गिक जस् + वैणविक जस्।

यहाँ पर 'चार्थे द्वन्द्वः' सूत्र से समाहार के अर्थ में द्वन्द्व समास हुआ। शेष प्राग्श्वत। वाद्यंगों का समास होने से "द्वन्दृश्च प्राणि तूर्य सेनाङ्गनाम्" से एकवदभाव।

रथिकाश्वारोहम् - (रथिकों तथा अश्वारोहियों का समूह)

लौकिक विग्रह - रथिकाश्च अश्वारोहाश्च एषां समाहारो रथिकाश्वारोहम्।
अलौकिक विग्रह - रथिक जस् + अश्वारोह जस्।

यहाँ पर 'चार्थे द्वन्द्वः' से समास अल्पाच्तरम् से रथिक जास् का पूर्व निपात। शेष पूर्ववत्। सेनाङ्गों का समास होने से 'द्वन्द्वश्च प्राणि' से एकवद्भाव।

वाकत्वचम् - (वाणी तथा त्वचा का समुदाय)

लौकिक विग्रह - वाक् च त्वक् चानयोः समाहारः वाक्त्वचम्।
अलौकिक विग्रह - वाच् सु + त्वच् सु।

यहाँ पर 'चार्थे द्वन्द्वः' सूत्र से समाहार के अर्थ में द्वन्द्व समास हुआ है। समास होने पर 'कृन्तद्वितसमासाश्च' सूत्र से समास की प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'सुपोधातुप्रतिपदिकयोः' से सुपों का लुक् होकर बना वाच् त्वच्। अन्तवर्तिनी विभक्ति का आश्रय लेकर पदत्व के कारण 'चोः कुः' सूत्र द्वारा वाच् के चकार को कुत्वेन ककार आदेश कर वाक्तवच् बना। अब इस समाहार द्वन्द्व के अन्त में चवर्ग विद्यमान है अतः 'द्वन्द्वाच्चुदषहान्तात् समाहारे' सूत्र द्वारा समासान्त टच् (अ) प्रत्यय होकर वाक्त्वच अ = 'वाक्त्वच' यह अकारान्त शब्द निण्यन्न हुआ। 'स नपुंसकम्' के अनुसार नपुंसक के प्रथमौकवचन में सु को समादेश तथा अमिपूर्वः' से पूर्वरूप एकादेश करने पर 'वाक्तत्वचम् ' प्रयोग सिद्ध हुआ।

त्वक्स्जम् - (त्वचा और माला का समाहार)

लौकिक विग्रह - त्वक् च सज चानयोः समाहारः त्वकस्ज्ञम्।
अलौकिक विग्रह - त्वच् सु + स्रज् सु। शेष प्राग्वत्।

शमीदृषम् - (शमीवृक्ष तथा पत्थर का समुदाय)

लौकिक विग्रह - शमी च दृषच्चानयोः समाहारः - शमीहषदम्।
अलौकिक विग्रह शमी सु + दृषद् सु। शेष उपरिवत्।

वाक्त्वषम् - (वाणी और कान्ति का समूह)

लौकिक विग्रह - वाक् चत्विष् चानयोः समाहार वाक्त्वषम्।
अलौकिक विग्रह वाच् सु + त्विष सु। शोक प्राग्वत्।

छत्रोपानहम् - (छाते तथा जूते का समुदाय)

लौकिक विग्रह - छत्रं चोपानच्चनयोः समाहारः छत्रोपाहनम्।
अलौकिक विग्रह - छत्र सु + उपानह सु।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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